Aaj Ka Panchang 28 february 2025: आज 28 फरवरी, 2025 को फाल्गुन माह का सोलहवां दिन है यानी आज इस माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि है। आज दिनमान यानी दिन की लंबाई 11 घंटे 33 मिनट 05 सेकंड की है, जबकि रात्रिमान 12 घंटे 25 मिनट 52 सेकंड की होगी। वैदिक ज्योतिष के अनुसार, यह वसंत ऋतु है और सूर्य वर्तमान में उत्तरायण में गोचर कर रहे हैं। आइए जानते हैं, 28 फरवरी के पंचांग के पांचों अंग यानी तिथि, नक्षत्र, वार, योग और करण की क्या स्थितियां हैं? आज का कौन-सा समय आपके लिए शुभ सिद्ध होने के योग दर्शा रहा है और आज का राहु काल का समय क्या है?
श्री सर्वेश्वर पञ्चाङ्गम् 🌞 🌕
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🚩🔱 धर्मो रक्षति रक्षितः🔱 🚩
🌅पंचांग- 28.02.2025🌅
युगाब्द - 5125
संवत्सर - कालयुक्त
विक्रम संवत् -2081
शाक:- 1946
ऋतु- बसंत
सूर्य __ उत्तरायण
मास - फाल्गुन
पक्ष _ शुक्लपक्ष
वार - शुक्रवार
तिथि - प्रतिपदा 27:15:48
नक्षत्र शतभिष 13:39:29
योग सिद्ध 20:06:36
करण किन्स्तुघ्न 16:46:30
करण बव 27:15:48
चन्द्र राशि कुम्भ till 29:56
चन्द्र राशि - मीन from 29:56
सूर्य राशि - कुम्भ
🚩🌺 आज विशेष 🌺🚩
👉 आज के दिन श्वेत वस्तु का दान लक्ष्मी प्रदान करने वाला होता है।
🍁 अग्रिम पर्वोत्सव 🍁
👉 फुलेरा दोज
01 मार्च 2025 (शुक्रवार)
👉 होलाष्टक
07 मार्च 2025 (शुक्रवार) से
👉 आमला एकादशी
10 मार्च 2025 (सोमवार)
👉 गोविन्द द्वादशी/ प्रदोष व्रत
11 मार्च 2025
(मंगलवार)
👉 होलिका दहन
13 मार्च 2025 (बुधवार)
( रात्रि 11/30 से 12 /I5)
👉 धुलण्डी/ सत्यनारायण व्रत
14 मार्च 2025 (शुक्रवार)
🕉️🚩 यतो धर्मस्ततो जयः🚩🕉️
ब्राह्मणों की महिमा
अयोध्यापुरी में इक्ष्वाकुकुल के धुरंधर वीर राजा परीक्षित् रहते थे। वे एक दिन शिकार खेलनेके लिये गये। उन्होंने एकमात्र अश्वकी सहायता से एक हिंसक पशुका पीछा किया। वह पशु उन्हें बहुत दूर हटा ले गया। मार्ग में उन्हें बड़ी थकावट हुई और वे भूख-प्याससे व्याकुल हो गये। उसी समय उन्हें एक ओर नीले रंगî 7 7i वन दिखायी दिया, जो और भी घना था। तत्पश्चात् राजाने उसके भीतर प्रवेश किया। उस वनस्थली के मध्यभाग में एक अत्यन्त रमणीय सरोवर था। उसे देखकर राजा घोड़ेसहित सरोवर के जलमें घुस गये। जल पीकर जब वे कुछ आश्वस्त हुए, तब घोड़ेके आगे कुछ कमलकी नालें डालकर स्वयं उस सरोवरके तटपर लेट गये।
लेटे-ही-लेटे उनके कानों में कहींसे मधुर गीतकी ध्वनि सुनायी पड़ी। उसे सुनकर राजा सोचने लगे कि - यहाँ मनुष्यों की गति तो नहीं दिखायी देती। फिर यह किसके गीतका शब्द सुनायी देता है। इतनेहीमें उनकी दृष्टि एक कन्यापर पड़ी, जो अपने परम सुन्दर रूपके कारण देखने ही योग्य थी। वह वनके फूल चुनती हुई गीत गा रही थी। धीरे-धीरे भ्रमण करती हुई वह राजाके समीप आ गयी । कल्याणी! तुम कौन और किसकी हो?' उसने उत्तर दिया- 'मैं कन्या हूँ- अभी मेरा विवाह नहीं हुआ है।' तब राजाने उससे कहा- 'भद्रे ! मैं तुझे चाहता हूँ'।
कन्या बोली' तुम मुझे एक शर्त के साथ पा सकते हो अन्यथा नहीं।' राजाने उससे वह शर्त पूछी। कन्याने कहा- 'मुझे कभी जलका दर्शन न कराना'। 'तब राजाने उससे 'बहुत अच्छा' कहकर उससे (गान्धर्व) विवाह किया। विवाहके पश्चात् राजा परीक्षित् अत्यन्त आनन्दपूर्वक उसके साथ क्रीड़ा-विहार करने लगे और एकान्तमें मिलकर उसके साथ चुपचाप बैठे रहे। 'राजा अभी वहीं बैठे थे, इतनेहीमें उनकी सेना आ पहुँची।
'वह सेना अपने बैठे हुए राजाको चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयी। अच्छी तरह सुस्ता लेनेके पश्चात् राजा एक साफ-सुथरी चिकनी पालकी में उसीके साथ बैठकर अपने नगरको चल दिये और वहाँ पहुँचकर उस नवविवाहिता सुन्दरीके साथ एकान्तवास करने लगे।
वहाँ निकट होते हुए भी कोई उनका दर्शन नहीं कर पाता था। तब एक दिन प्रधान मन्त्रीने राजाके पास रहनेवाली स्त्रियोंसे पूछा-'यहाँ तुम्हारा क्या काम है?' उनके ऐसा पूछनेपर उन स्त्रियोंने कहा-
हमें यहाँ एक अद्भुत-सी बात दिखायी देती है। महाराजके अन्तः पुरमें पानी नहीं जाने पाता है। (हमलोग इसीकी चौकसी करती हैं।)' उनकी यह बात सुनकर प्रधान मन्त्रीने एक बाग लगवाया, जिसमें प्रत्यक्षरूपसे कोई जलाशय नहीं था। उसमें बड़े सुन्दर और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष लगवाये गये थे। वहाँ फल-फूल और कन्द-मूलकी भी बहुतायत थी। उस उपवनके मध्यभागमें एक किनारेकी ओर सुधाके समान स्वच्छ जलसे भरी हुई एक बावली भी बनवायी थी, जो मोतियोंके जालसे निर्मित थी। उस बावलीको (लताओंद्वारा) बाहरसे ढक दिया गया था। उस उद्यानके तैयार हो जानेपर मन्त्रीने किसी दिन राजासे मिलकर कहा-
महाराज! यह वन बहुत सुन्दर है, आप इसमें भलीभाँति विहार करें'।
'मन्त्रीके कहने से राजा ने उसी नवविवाहिता रानी के साथ उस वनमें प्रवेश किया। एक दिन महाराज परीक्षित् उस रमणीय उद्यानमें अपनी उसी प्रियतमाके साथ विहार कर रहे थे। विहार करते-करते जब वे थक गये और भूख-प्याससे बहुत पीड़ित हो गये, तब उन्हें वासन्ती लताद्वारा निर्मित एक मनोहर मण्डप दिखायी दिया। उस मण्डपमें प्रियासहित प्रवेश करके राजाने सुधाके समान स्वच्छ जलसे परिपूर्ण वह बावली देखी। उसे देखकर वे अपनी रानीके साथ उसीके तटपर खड़े हुए। 'उस समय राजाने उस रानीसे कहा- 'देवि ! सावधानीके साथ इस बावलीके जलमें उतरो।' राजाकी यह बात सुनकर उसने बावलीमें घुसकर गोता लगाया और फिर बाहर नहीं निकली।
राजाने उस वापीमें रानीकी बहुत खोज की, परंतु वह कहीं दिखायी न दी। तब उन्होंने बावलीका सारा जल निकलवा दिया। इसके बाद एक बिलके मुँहपर कोई मेढक दीख पड़ा। इससे राजाको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने आज्ञा दे दी कि 'सर्वत्र मेढकोंका वध किया जाय। जो मुझसे मिलना चाहे, वह मरे हुए मेढकका ही उपहार लेकर मेरे पास आवे'। इस आज्ञाके अनुसार चारों ओर मेढकोंका भयंकर संहार आरम्भ हो गया। इससे सब दिशाओंके मेढकोंके मनमें भय समा गया। वे डरकर मण्डूकराजके पास गये और उनसे सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता दिया।
तब मण्डूकराज तपस्वीका वेष धारण करके राजाके पास गया और निकट पहुँचकर उससे इस प्रकार बोला- राजन्! आप क्रोधके वशीभूत न हों। हमपर कृपा करें। निरपराध मेढकोंका वध न करावें।' इस विषयमें ये दो श्लोक भी प्रसिद्ध हैं-अच्युत ! आप मेढकोंको मारनेकी इच्छा न करें। अपने क्रोधको रोकें; क्योंकि अविवेकसे काम लेनेवाले मनुष्योंके धनकी वृद्धि नष्ट हो जाती है ।
प्रतिज्ञा करें कि इन मेढकोंको पाकर आप क्रोध नहीं करेंगे; यह अधर्म करनेसे आपको क्या लाभ है? मण्डूकोंकी हत्यासे आपको क्या मिलेगा?'
राजाका हृदय अपनी प्यारी रानीके विनाशके शोकसे दग्ध हो रहा था। उन्होंने उपर्युक्त बातें कहनेवाले मण्डूकराजसे कहा-
'मैं क्षमा नहीं कर सकता। इन मेढकोंको अवश्य मारूँगा। इन दुरात्माओंने मेरी प्रियतमाको खा लिया है। अतः ये मेढक मेरे लिये सर्वथा वध्य ही हैं। विद्वन्! आप मुझे उनके वधसे न रोकें'
राजाकी बात सुनकर मण्डूकराजका मन और इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं। वह बोला - 'महाराज! प्रसन्न होइये। मेरा नाम आयु है। मैं मेढकोंका राजा हूँ। जिसे आप अपनी प्रियतमा कहते हैं, वह मेरी ही पुत्री है। उसका नाम सुशोभना है। वह आपको छोड़कर चली गयी, यह उसकी दुष्टता है। उसने पहले भी बहुत-से राजाओंको धोखा दिया है' ।
तब राजाने मण्डूकराजसे कहा- 'मैं तुम्हारी उस पुत्रीको चाहता हूँ, उसे मुझे समर्पित कर दो'।
तब पिता मण्डूकराजने अपनी पुत्री सुशोभना महाराज परीक्षित्को समर्पित कर दी और उससे कहा- 'बेटी! सदा राजाकी सेवा करती रहना।' ऐसा कहकर मण्डूकराजने जब अपनी पुत्रीके अपराधको याद किया, तब उसे क्रोध हो आया और उसने उसे शाप देते हुए कहा- 'अरी! तूने बहुत-से राजाओंको धोखा दिया है, इसलिये तेरी संतानें ब्राह्मणविरोधी होंगी; क्योंकि तू बड़ी झूठी' है।
सुशोभनाके रतिकलासम्बन्धी गुणोंने राजाके मनको बाँध लिया था। वे उसे पाकर ऐसे प्रसन्न हुए, मानो उन्हें तीनों लोकोंका राज्य मिल गया हो। उन्होंने आनन्दके आँसू बहाते हुए मण्डूकराजको प्रणाम किया और उसका यथोचित सत्कार करते हुए हर्षगद्गद वाणीमें कहा-'मण्डूकराज ! तुमने मुझपर बड़ी कृपा की है'। तत्पश्चात् कन्यासे विदा लेकर मण्डूकराज जैसे आया था, वैसे ही अपने स्थानको चला गया।
कुछ कालके पश्चात् सुशोभनाके गर्भसे राजा परीक्षित्के तीन पुत्र हुए-शल, दल और बल। इनमें शल सबसे बड़ा था। समय आनेपर पिताने शलका राज्याभिषेक करके स्वयं तपस्यामें मन लगाये तपोवनको प्रस्थान किया ।
तदनन्तर एक दिन महाराज शल शिकार खेलनेके लिये वनको गये। वहाँ उन्होंने एक हिंसक पशुको सामने पाकर रथके द्वारा ही उसका पीछा किया और सारथिसे कहा- 'शीघ्र मुझे मृगके निकट पहुँचाओ'। उनके ऐसा कहनेपर सारथि बोला- 'महाराज! आप इस पशुको पकड़नेका आग्रह न करें। यह आपकी पकड़में नहीं आ सकता। यदि आपके रथमें दोनों वाम्य घोड़े जुते होते, तब आप इसे पकड़ लेते।' यह सुनकर राजाने सूतसे पूछा -
- 'सारथे! बताओ, वाम्य घोड़े कौन हैं, अन्यथा मैं तुम्हें अभी मार डालूँगा।' राजाके ऐसा कहनेपर सारथि भयसे काँप उठा। उधर घोड़ोंका परिचय देनेपर उसे वामदेव ऋषिके शापका भी डर था। अतः उसने राजासे कुछ नहीं कहा। तब राजाने पुनः तलवार उठाकर कहा- 'अरे! शीघ्र बता, नहीं तो तुझे अभी मार डालूँगा।' तब उसने राजाके भयसे त्रस्त होकर कहा- 'महाराज! वामदेव मुनिके पास दो घोड़े हैं जिन्हें 'वाम्य' कहते हैं। वे मनके समान वेगशाली हैं'।
सारथिके ऐसा कहनेपर राजाने उसे आज्ञा दी, 'चलो वामदेवके आश्रमपर।' वामदेवके आश्रमपर पहुँचकर राजाने उन महर्षिसे कहा –
'भगवन्! मेरे बाणोंसे घायल हुआ हिंसक पशु भागा जा रहा है। आप अपने वाम्य अश्व मुझे देनेकी कृपा करें।' तब महर्षिने कहा- 'मैं तुम्हें वाम्य अश्व दिये देता हूँ। परंतु जब तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जाय, तब तुम शीघ्र ही ये दोनों अश्व मुझे ही लौटा देना।' राजाने दोनों अश्व पाकर ऋषिकी आज्ञा ले वहाँसे प्रस्थान किया। वामी घोड़ोंसे जुते हुए रथके द्वारा हिंसक पशुका पीछा करते हुए वे सारथिसे बोले - 'सूत! ये दोनों अश्वरत्न ब्राह्मणोंके पास रहने योग्य नहीं। अतः इन्हें वामदेवके पास लौटानेकी आवश्यकता नहीं है।' ऐसा कहकर राजा हिंसक पशुको साथ ले अपनी राजधानीको चल दिये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उन दोनों अश्वोंको अन्तःपुरमें बाँध दिया।
उधर वामदेव मुनि मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे- 'अहो ! वह तरुण राजकुमार मेरे अच्छे घोड़ोंको लेकर मौज कर रहा है, उन्हें लौटानेका नाम ही नहीं लेता है। यह तो बड़े कष्टकी बात है!'
शिष्य ने लौटकर ये सारी बातें उपाध्यायसे कहीं। वह अप्रिय वचन सुनकर वामदेव मन-ही-मन क्रोधसे जल उठे और स्वयं ही उस राजाके पास जाकर उन्हें घोड़े लौटा देनेके लिये कहा। परंतु राजाने वे घोड़े नहीं दिये'।
तब वामदेवने कहा- राजन् ! मेरे वाम्य अश्वोंको अब मुझे लौटा दो। निश्चय ही उन घोड़ोंद्वारा तुम्हारा असाध्य कार्य पूरा हो गया है। इस समय तुम ब्राह्मण और क्षत्रियके बीचमें विद्यमान हो। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी असत्यवादिताके कारण राजा वरुण तुम्हें अपने भयंकर पाशोंसे बाँध लें। राजा बोले- वामदेवजी ! ये दो अच्छे स्वभावके सीखे-सिखाये हृष्ट-पुष्ट बैल हैं, जो गाड़ी खींच सकते हैं; ये ही ब्राह्मणोंके लिये उचित वाहन हो सकते हैं। अतः महर्षे ! इन्हींको गाड़ीमें जोतकर आप जहाँ चाहें जायँ। आप-जैसे महात्माका भार तो वेदमन्त्र ही वहन करते हैं।
वामदेवने कहा-राजन् ! इसमें संदेह नहीं कि हम-जैसे लोगोंके लिये वेदके मन्त्र ही वाहनका काम देते हैं। परंतु वे परलोकमें ही उपलब्ध होते हैं। इस लोकमें तो हम-जैसे लोगोंके तथा दूसरोंके लिये भी ये अश्व ही वाहन होते हैं। राजाने कहा- ब्रह्मन् ! तब चार गधे, अच्छी जातिकी खच्चरियाँ या वायुके समान वेगशाली दूसरे घोड़े आपकी सवारीके लिये प्रस्तुत हो सकते हैं। इन्हीं वाहनोंद्वारा आप यात्रा करें। यह वाहन, जिसे आप माँगने आये हैं, क्षत्रिय नरेशके ही योग्य हैं। इसलिये आप यह समझ लें कि ये वाम्य अश्व मेरे ही हैं, आपके नहीं। वामदेव बोले- राजन् ! तुम ब्राह्मणों के इस धनको हड़पकर जो अपने उपयोगमें लाना चाहते हो, यह बड़ा भयंकर कर्म कहा गया है। यदि मेरे घोड़े वापस न दोगे तो मेरी आज्ञा पाकर विकराल रूपधारी तथा लौह-शरीरवाले अत्यन्त भयंकर चार बड़े-बड़े राक्षस हाथोंमें तीखे त्रिशूल लिये तुम्हारे वधकी इच्छासे टूट पड़ेंगे और तुम्हारे शरीरके चार टुकड़े करके उठा ले जायँगे। राजाने कहा-वामदेवजी ! आप ब्राह्मण हैं तो भी मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा मुझे मारनेको उद्यत हैं, इसका पता हमारे जिन सेवकोंको चल गया है, वे मेरी आज्ञा पाते ही हाथोंमें तीखे त्रिशूल तथा तलवार लेकर शिष्योंसहित आपको पहले ही यहाँ मार गिरावेंगे ।वामदेव बोले- राजन्! तुमने जब ये मेरे दोनों घोड़े लिये थे, उस समय यह प्रतिज्ञा की थी मैं इन्हें पुनः लौटा दूँगा। ऐसी दशामें यदि अपने-आपको तुम जीवित रखना चाहते हो तो मेरे दोनों वाम्यसंज्ञक घोड़े वापस दे दो।
राजा बोले- ब्रह्मन् ! (ये घोड़े शिकारके उपयोग में आने योग्य हैं और) ब्राह्मणोंके लिये शिकार खेलनेकी विधि नहीं है। यद्यपि आप मिथ्यावादी हैं, तो भी मैं आपको दण्ड नहीं दूँगा और आजसे आपके सारे आदेशोंका पालन करूँगा, जिससे मुझे पुण्यलोककी प्राप्ति हो (परन्तु ये घोड़े आपको नहीं मिल सकते)। वामदेवने कहा- राजन्! मन, वाणी अथवा क्रियाद्वारा कोई भी अनुशासन या दण्ड ब्राह्मणोंपर लागू नहीं हो सकता। जो इस प्रकार जानकर कष्टसहनपूर्वक ब्राह्मणकी सेवा करता है; वह उस ब्राह्मणसेवारूप कर्मसे ही श्रेष्ठ होता और जीवित रहता है।
वामदेवकी यह बात पूर्ण होते ही विकराल रूपधारी चार राक्षस वहाँ प्रकट हो गये। उनके हाथमें त्रिशूल थे। जब वे राजापर चोट करने लगे, तब राजाने उच्च स्वरसे यह बात कही –
'यदि ये इक्ष्वाकुवंशके लोग तथा मेरे आज्ञापालक प्रजावर्गके मनुष्य भी मेरा त्याग कर दें, तो भी मैं वामदेवके इन वाम्य संज्ञक घोड़ोंको कदापि नहीं दूंगा; क्योंकि इनके-जैसे लोग धर्मात्मा नहीं होते हैं'। ऐसा कहते ही राजा शल उन राक्षसोंसे मारे जाकर तुरंत धराशायी हो गये। इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंको जब यह मालूम हुआ कि राजा मार गिराये गये, तब उन्होंने उनके छोटे भाई दलका राज्याभिषेक कर दिया।
तब पुनः उस राज्यमें जाकर विप्रवर वामदेवने राजा दलसे यह बात कही—‘महाराज! ब्राह्मणोंकी वस्तु उन्हें दे दी जाय, यह बात सभी धर्मोंमें देखी गयी है। 'नरेन्द्र ! यदि तुम अधर्मसे डरते हो तो मुझे अभी शीघ्रतापूर्वक मेरे वाम्य अश्वोंको लौटा दो।' वामदेवकी यह बात सुनकर राजाने रोषपूर्वक अपने सारथिसे कहा –
'सूत! एक अद्भुत बाण ले आओ, जो विषमें बुझाकर रखा गया हो, जिससे घायल होकर यह वामदेव धरतीपर लोट जाय। इसे कुत्ते नोच-नोचकर खायँ और यह पृथ्वीपर पड़ा-पड़ा पीड़ासे छटपटाता रहे'। वामदेवने कहा- नरेन्द्र ! मैं जानता हूँ, तुम्हारी रानीके गर्भसे श्येनजित् नामक एक पुत्र पैदा हुआ है, जो तुम्हें बहुत प्रिय है और जिसकी अवस्था दस वर्षकी हो गयी है। तुम मेरी आज्ञासे प्रेरित होकर इन भयंकर बाणोंद्वारा अपने उसी पुत्रका शीघ्र वध करोगे। वामदेवके ऐसा कहते ही उस प्रचण्ड तेजस्वी बाणने धनुषसे छूटकर रनवासके भीतर जा राजकुमारका वध कर डाला। यह समाचार सुनकर दलने वहाँ पुनः इस प्रकार कहा –
राजाने कहा-इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियो ! मैं अभी तुम्हारा प्रिय करता हूँ। आज इस ब्राह्मणको रौंदकर मार डालूँगा। एक-दूसरा तेजस्वी बाण ले आओ और आज मेरा पराक्रम देखो। वामदेवजीने कहा- नरेश्वर ! तुम विषके बुझाये हुए इस विकराल बाणको मुझे मारनेके लिये धनुषपर चढ़ा रहे हो, परंतु मैं कहे देता हूँ 'इस बाणको न तो तुम धनुषपर रख सकोगे और न छोड़ ही सकोगे' ।राजा बोले- इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियो ! देखो, मैं फँस गया। अब यह बाण नहीं छोड़ सकूँगा। इसलिये वामदेवको नष्ट करनेका उत्साह जाता रहा। अतः यह महर्षि दीर्घायु होकर जीवित रहे। वामदेवजीने कहा- राजन्! तुम इस बाणसे अपनी रानीका स्पर्श कर लेनेपर ब्रह्महत्याके पापसे छूट जाओगे। तब राजाने ऐसा ही किया। तदनन्तर राजपुत्रीने मुनिसे कहा ।
राजपुत्री बोली-वामदेवजी ! मैं इन कठोर स्वभाववाले अपने स्वामीको प्रतिदिन सावधान रहकर मीठे वचन बोलनेकी सलाह देती रहती हूँ और स्वयं ब्राह्मणों की सेवाका अवसर ढूँढ़ती हूँ। ब्रह्मन् ! इन सत्कर्मों के कारण मुझे पुण्यलोककी प्राप्ति हो।
वामदेवने कहा- शुभ दृष्टिवाली अनिन्द्य राजकुमारी ! तुमने इस राजकुलको ब्राह्मणके कोपसे बचा लिया। इसके लिये कोई अनुपम वर माँगो। मैं तुम्हें अवश्य दूँगा। तुम इन स्वजनोंके हृदय और विशाल इक्ष्वाकु-राज्यपर शासन करो।
राजकुमारी बोली- भगवन् ! मैं यही चाहती हूँ कि मेरे ये पति आज सब पापोंसे छुटकारा पा जायँ। आप यह आशीर्वाद दें कि ये पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित सुखसे रहें। विप्रवर! मैंने आपसे यही वर माँगा है।
राजपुत्रीकी यह बात सुनकर वामदेव मुनिने कहा- 'ऐसा ही होगा।' तब राजा दल बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने महर्षिको प्रणाम करके वे दोनों वाम्य अश्व उन्हें लौटा दिये।
जय जय श्री ठाकुर जी की
(जानकारी अच्छी लगे तो अपने इष्ट मित्रों को जन हितार्थ अवश्य प्रेषित करें।)
ज्यो.पं.पवन भारद्वाज(मिश्रा)
व्याकरणज्योतिषाचार्य
राज पंडित-श्री राधा गोपाल मंदिर
(जयपुर)